"सचिन अग्रवाल"
अक्सर लोगों को कहते सुनता था कि अगर मेरा
कोई सगा बड़ा भाई होता तो फलां के जैसा ही होता, या दिल के रिश्ते कभी कभी खून के रिश्तों से ज्यादा एहमियत रखते हैं. सब शब्दों का जाल था, पढ़ने में अच्छा लगता
था, अनुभूति नही हुई थी कभी. इन्टरनेट पर अपनी रचनायें, जो केवल अपने और अपने दोस्तों
के लिए लिखा करता था, मै डालता रहता था. फिर एक दिन यूँ ही ख़याल आया कि क्या मेरे जैसे
और भी लोग हैं? और हैं तो कहाँ हैं? मैंने फसबूक पर पोएट लिख कर खोजा. बहुत लोग थे
साहब. एक दो जिनकी रचनायें अच्छी लगीं, मैंने उनसे जान पहचान बढाई. फिर एक दिन देखा
गाँधी जी के ऊपर किसी व्यक्ति ने बहुत सी बातें लिखी हैं. पढ़ के ऐसा लगा कि क्या गांधी
जी ऐसे भी थे? जैसा कि मैंने कहा है, सब शब्दों का जाल था. कई यथार्थ जो अब तक अनछुए
थे, मैंने उनको पढ़ा. गाँधी जी के लिए सम्मान कम हुआ मै नही कहूँगा, लेकिन उस व्यक्ति
से बहस करते हुए ज़रूर एक बात लगी, के इनसे जमेगी.
भैय्या को दोस्त बनाने के बाद से ही लगातार दो दिन तक उनकी शायरी पढता रहा. कॉलेज में अपने दोस्तों को सुनाया करता. वो पूछते किसकी है तो नाम बताने पर कोई उनको नही जानता था. जैसे गुमनाम शायर हुआ करते हैं न. बातें आगे बढ़ी तो रिश्ता और गाढा होता गया, बावजूद इसके कि उनसे मेरी कई बातों पर बहस हो जाया करती थी. लेकिन कभी बात अश्लीलता तक नहीं आई. फिर एक दिन उन्होंने कहा कि एक संगठन है, मै चाहता हूँ कि तू अपने सबसे बढ़िया रचना लेकर मुझे कश्मीरी गेट मेट्रो पर मिल. मै चला गया. बहुत अच्छा लग रहा था, जैसे भारत भूषन अवार्ड लेने जा रहा हूँ.
मेट्रो में मिले तो ज्यादा बोले नहीं. इधर उधर कि दो बातें हुई बमुश्किल. लेकिन जो दो बातें हुई वो उनकी बुलंद आवाज़ और अलीगढ़ी अंदाज़ की वजह से आधे डब्बे ने तो सुनी होगी. ‘राष्ट्रीय कवि संगम’ जिसके कार्यक्रम ‘दस्तक’ के नाम से हर साल होते हैं. उसी के आधे देश से चुने गए १५ कवियों में एक सचिन भाई थे, उसी के लिए मै भी बुलाया गया था. मैं उनसे पुछा कि उस जगह के कायदे क़ानून क्या हैं?
उन्होंने मुझसे एक ही बात कही.......कायदों पर नही अपनी कविता पर ध्यान दे.
सचिन भैय्या और मैंने वो लम्हें साथ जिए जब मंच पर कि राजनीती की वजह से एक पल को हमने फैसला कर लिया था कि कलम को छोड़ कर काम पर ध्यान देना है. हमारे लिए साहित्य में कुछ भी नहीं है. कारण सिर्फ इतना था कि हम न किसी बड़े रचनाकार के भाई भतीजे थे, और न ही हम दोनों में से किसी को पलकें बिछानी आती थी. कभी कभी मेरा मन करता था कि मै जाकर गोष्ठी में आये किसी बड़े कवि से हाल चाल लूँ, लेकिन बगल में बैठे भैय्या के डर से कभी उठा नहीं. शिष्टाचार का पालन किया, लेकिन तब जब आमना सामना हुआ. मैंने जहाँ भी कविता पढ़ी, लोगों ने खूब वाह की, सबके यही डायलाग होते थे ‘ये लड़का बहुत आगे जाएगा’ , ‘इस लड़के में कुछ बात है’ , ‘ये नयी पीढ़ी कि असली कविता है’. मै बहुत खुश हो जाता था. लेकिन फिर पता चला कि ये बातें तो सचिन भैय्या सालों से सुनते आ रहे हैं. असल में मंच तो एक बपौती होता है. जो संयोजकों से आपके प्रगाढ़ रिश्तों पर ही मिला करता है.
वक्त के साथ साथ हम दोनों ने हर क्षेत्र में लगभग एक जैसा ही संघर्ष किया. आज ये रिश्ता इस मुकाम पर है कि मेरी लाख कोशिश करने पर, मै जब कोई नयी ग़ज़ल लिखता हूँ (ग़ज़ल मेरा क्षेत्र नहीं है) और बड़ी उम्मीद से उनको मैसेज करता हूँ, वो एक पल में मुझे ज़मीन पर उतार देते हैं कि ‘कमी है’ लेकिन कभी मन में वो ख़याल नहीं आते जो किसी और के बार बार ऐसा कहने पर आ सकते हैं.
आज सचिन भैय्या अपनी खुद्दारी और अपने अनमोल शेरो को लेकर अलीगढ से जाने कहाँ कहाँ तक चले गए हैं. शायद ये एक अच्छे वक्त का संकेत है. लेकिन मैंने आज भी उनके मुंह से कभी किसी कि झूठी तारीफ़ नहीं सुनी.
सचिन भैय्या ने वाकई में वो जिंदगी जी है जिसको जीने का दंभ बड़े बड़े शायर भरते है. मै उनको उगता सूरज मानता हूँ जिसकी गिनती एक दिन देश के उन चुनिन्दा शायरों में होगी जिन्होंने ग़ज़ल की विरासत को पुरानी पीढ़ी से लेकर और आने वाली अगली पीढ़ी के हाथों में सौंपा, तराश कर.
लेकिन अभी तो उनके रोशन होने के दिन हैं. मुझे फक्र है कि मेरा एक ऐसा बड़ा भाई है.
भैय्या को दोस्त बनाने के बाद से ही लगातार दो दिन तक उनकी शायरी पढता रहा. कॉलेज में अपने दोस्तों को सुनाया करता. वो पूछते किसकी है तो नाम बताने पर कोई उनको नही जानता था. जैसे गुमनाम शायर हुआ करते हैं न. बातें आगे बढ़ी तो रिश्ता और गाढा होता गया, बावजूद इसके कि उनसे मेरी कई बातों पर बहस हो जाया करती थी. लेकिन कभी बात अश्लीलता तक नहीं आई. फिर एक दिन उन्होंने कहा कि एक संगठन है, मै चाहता हूँ कि तू अपने सबसे बढ़िया रचना लेकर मुझे कश्मीरी गेट मेट्रो पर मिल. मै चला गया. बहुत अच्छा लग रहा था, जैसे भारत भूषन अवार्ड लेने जा रहा हूँ.
मेट्रो में मिले तो ज्यादा बोले नहीं. इधर उधर कि दो बातें हुई बमुश्किल. लेकिन जो दो बातें हुई वो उनकी बुलंद आवाज़ और अलीगढ़ी अंदाज़ की वजह से आधे डब्बे ने तो सुनी होगी. ‘राष्ट्रीय कवि संगम’ जिसके कार्यक्रम ‘दस्तक’ के नाम से हर साल होते हैं. उसी के आधे देश से चुने गए १५ कवियों में एक सचिन भाई थे, उसी के लिए मै भी बुलाया गया था. मैं उनसे पुछा कि उस जगह के कायदे क़ानून क्या हैं?
उन्होंने मुझसे एक ही बात कही.......कायदों पर नही अपनी कविता पर ध्यान दे.
सचिन भैय्या और मैंने वो लम्हें साथ जिए जब मंच पर कि राजनीती की वजह से एक पल को हमने फैसला कर लिया था कि कलम को छोड़ कर काम पर ध्यान देना है. हमारे लिए साहित्य में कुछ भी नहीं है. कारण सिर्फ इतना था कि हम न किसी बड़े रचनाकार के भाई भतीजे थे, और न ही हम दोनों में से किसी को पलकें बिछानी आती थी. कभी कभी मेरा मन करता था कि मै जाकर गोष्ठी में आये किसी बड़े कवि से हाल चाल लूँ, लेकिन बगल में बैठे भैय्या के डर से कभी उठा नहीं. शिष्टाचार का पालन किया, लेकिन तब जब आमना सामना हुआ. मैंने जहाँ भी कविता पढ़ी, लोगों ने खूब वाह की, सबके यही डायलाग होते थे ‘ये लड़का बहुत आगे जाएगा’ , ‘इस लड़के में कुछ बात है’ , ‘ये नयी पीढ़ी कि असली कविता है’. मै बहुत खुश हो जाता था. लेकिन फिर पता चला कि ये बातें तो सचिन भैय्या सालों से सुनते आ रहे हैं. असल में मंच तो एक बपौती होता है. जो संयोजकों से आपके प्रगाढ़ रिश्तों पर ही मिला करता है.
वक्त के साथ साथ हम दोनों ने हर क्षेत्र में लगभग एक जैसा ही संघर्ष किया. आज ये रिश्ता इस मुकाम पर है कि मेरी लाख कोशिश करने पर, मै जब कोई नयी ग़ज़ल लिखता हूँ (ग़ज़ल मेरा क्षेत्र नहीं है) और बड़ी उम्मीद से उनको मैसेज करता हूँ, वो एक पल में मुझे ज़मीन पर उतार देते हैं कि ‘कमी है’ लेकिन कभी मन में वो ख़याल नहीं आते जो किसी और के बार बार ऐसा कहने पर आ सकते हैं.
आज सचिन भैय्या अपनी खुद्दारी और अपने अनमोल शेरो को लेकर अलीगढ से जाने कहाँ कहाँ तक चले गए हैं. शायद ये एक अच्छे वक्त का संकेत है. लेकिन मैंने आज भी उनके मुंह से कभी किसी कि झूठी तारीफ़ नहीं सुनी.
सचिन भैय्या ने वाकई में वो जिंदगी जी है जिसको जीने का दंभ बड़े बड़े शायर भरते है. मै उनको उगता सूरज मानता हूँ जिसकी गिनती एक दिन देश के उन चुनिन्दा शायरों में होगी जिन्होंने ग़ज़ल की विरासत को पुरानी पीढ़ी से लेकर और आने वाली अगली पीढ़ी के हाथों में सौंपा, तराश कर.
लेकिन अभी तो उनके रोशन होने के दिन हैं. मुझे फक्र है कि मेरा एक ऐसा बड़ा भाई है.

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